बुधवार, 29 अगस्त 2018

Pramod Krishna Shastri

लोग जल जाते हैं मेरी मुस्कान पर क्योंकि 
मैंने कभी दर्द की नुमाइश नहीं की 
जिंदगी से जो मिला कबूल किया 
किसी चीज की फरमाइश नहीं की 
मुश्किल है समझ पाना मुझे क्योंकि
जीने के अलग है अंदाज मेरे 
जब जहां जो मिला अपना लिया 
ना मिला उसकी ख्वाहिश नहीं की।

  "राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता" प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज WhatsApp 08737866555

शनिवार, 25 अगस्त 2018


सुबह 7:43 बजे से 9:18 बजे तक चर,
सुबह 9:18 बजे से लेकर 10:53 बजे तक लाभ,
सुबह 10:53 बजे से लेकर 12:28 बजे तक अमृत,
दोपहर 2:03 बजे से लेकर 3:38 बजे तक शुभ,
सायं 6:48 बजे से लेकर 8:13 बजे तक शुभ,
रात्रि 8:13 बजे से लेकर 9:38 बजे तक अमृत,
रात्रि 9:38 बजे से लेकर 11:03 बजे तक चर,

 इन मुहूर्तों में राखी बांधी जा सकती है। अमृत मुहूर्त के समय राखी बाँधना बहुत ही फलदायी माना जाता है। इसलिए कोशिश करें कि इसी समय अपने भाई को राखी बाँधें और भाई भी अपनी बहनों से इसी समय राखी बँधवाएँ
    राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता
  प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
 08737866555/9453316276

गुरुवार, 16 अगस्त 2018

पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के निधन का समाचार बेहद दुखद है। देश ने आज एक महान नेता को खो दिया है।
अटल जी एक व्यापक और विशाल हृदय- व्यक्तित्व थे जिन्होंने पूरे राजनीतिक फलक और समाज के सभी वर्गों को हमेशा अंगीकार किया। भारत रत्न वाजपेयी जी एक कुशल राजनेता, प्रखर वक्त, अच्छे कवि, अपनी बुद्धिमत्ता एवम राष्ट्रीय हितों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के लिए सदैव अविस्मरणीय रहेंगे।
मेरी संवेदनाएं शोकाकुल परिजनों एवम देशवासियों के साथ हैं, ईश्वर उन्हें इस दुःखद समय में संबल दें एवम दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें।

  राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता 
प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
     08737866555

बुधवार, 15 अगस्त 2018

ब्राह्मण बुद्धि को समझना हर किसी के बस की बात नहीं है 1 बार जरूर पढ़ें!!
एक गाँव में एक ब्राह्मण रहता था, उसकी बुद्धि की ख्याति दूर दूर तक फैली थी। 
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एक बार वहाँ के राजा ने उसे चर्चा पर बुलाया। काफी देर चर्चा के बाद राजा ने कहा – 
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“महाशय, आप बहुत ज्ञानी है, इतने पढ़े लिखे है पर आपका लड़का इतना मूर्ख क्यों है ? उसे भी कुछ सिखायें। 
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उसे तो सोने चांदी में मूल्यवान क्या है यह भी नहीं पता॥” यह कहकर राजा जोर से हंस पड़ा..
ब्राह्मण  को बुरा लगा, वह घर गया व लड़के से पूछा “सोना व चांदी में अधिक मूल्यवान क्या है ?” 
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“सोना”, बिना एक पल भी गंवाए उसके लड़के ने कहा।
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“तुम्हारा उत्तर तो ठीक है, फिर राजा ने ऐसा क्यूं कहा-? सभी के बीच मेरी खिल्ली भी उड़ाई।” 
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लड़के के समझ मे आ गया, वह बोला “राजा गाँव के पास एक खुला दरबार लगाते हैं, 
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जिसमें सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति  शामिल होते हैं। यह दरबार मेरे स्कूल जाने के मार्ग मे ही पड़ता है। 
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मुझे देखते ही बुलवा लेते हैं, अपने एक हाथ में सोने का व दूसरे में चांदी का सिक्का रखकर, जो अधिक मूल्यवान है वह ले लेने को कहते हैं...

और मैं चांदी का सिक्का ले लेता हूं। सभी ठहाका लगाकर हंसते हैं व मज़ा लेते हैं। ऐसा तक़रीबन हर दूसरे दिन होता है।” 
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“फिर तुम सोने का सिक्का क्यों नहीं उठाते, चार लोगों के बीच अपनी फजिहत कराते हो व साथ मे मेरी भी❓”
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लड़का हंसा व हाथ पकड़कर पिता  को अंदर ले गया 

और कपाट से एक पेटी निकालकर दिखाई जो चांदी के सिक्कों से भरी हुई थी। 
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यह देख वो   ब्राह्मण हतप्रभ रह गया। 
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लड़का बोला “जिस दिन मैंने सोने का सिक्का उठा लिया उस दिन से यह खेल बंद हो जाएगा। 
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वो मुझे मूर्ख समझकर मज़ा लेते हैं तो लेने दें, यदि मैं बुद्धिमानी दिखाउंगा तो कुछ नहीं मिलेगा। ब्राह्मण का बेटा हूँ अक़्ल से काम लेता हूँ 
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मूर्ख होना अलग बात है 
और मूर्ख समझा जाना अलग.. 

स्वर्णिम मॊके का फायदा उठाने से बेहतर है, हर मॊके को स्वर्ण में तब्दील करना। 
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 ब्राह्मण को भगवान ने बुद्धि का भंडार बनाकर भेजा है 
इसपे शक मत करना!!

     "राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता"
    प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
   08737866555/9453316276

मंगलवार, 14 अगस्त 2018


राधे राधे ॥ आज का भगवद चिन्तन ॥
             14-08-2018
विद्वता के बाद यदि जीवन में विनम्रता न आए तो वह विद्वता कैसी.? विद्वता वही जो अहम और वहम से मुक्त करा कर सोऽहम में प्रतिष्ठित करा दे।
       विनम्रता का स्थान विद्वता से भी कई गुना बढ़कर है। विनम्र व्यक्ति विद्वान न भी हो तो कोई बात नहीं मगर विद्वान व्यक्ति में विनम्रता अवश्यमेव होनी ही चाहिए।
      विनम्रता विद्वता का आभूषण है। विनम्रता विहीन विद्वता व्यक्ति को रावण की तरह अहंकारी बना देती है, जो समय आने पर अपने ही संपूर्ण नाश का कारण बन जाती है। इस समाज द्वारा जितने भी महापुरुष वास्तविक रुप से पूजे गए वो विनम्रता के साथ वाली विद्वता के बल पर ही पूजे गए।

 *विद्या ददाति विनयः* संपूर्ण विद्या का सार विनय ही है। जो व्यक्ति जीवन में विनम्रता को स्थान देना सीख जाता है, फिर विनम्रता उसको सबके दिलों में स्थान दिला देती है।
            जय श्रीराधे कृष्णा

     राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता
    प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
 08737866555/9453316276

Radhe Radhe Today's Bhagavad Chintan
                   14-08-2018

If after the scholarship, if there is no humility in life then that scholarship? Scholarship is the one who frees itself from the importance and the importance of establishing it in Sohum.

       The place of humility increases manifold more than scholarship. Humble people are not scholars, there is nothing to worry about, but humility should be immovable in a wise man.

      Humility is scholarly jewelery. The wise person without humility makes the arrogant like Ravana, which, when the time comes, becomes the cause of its own complete destruction. All the great men, who were actually worshiped by this society, were worshiped only on the strength of scholarship with humility.



 * Vidya Daddati Vinayah: * The essence of the entire school is modest. The person who learns to place humility in life, then the humility places him in the hearts of everyone.

          Jai Shree Radhe-Krishna

     National Bhagwat Tale Spokesperson
       Pramod Krishna Shastri ji Maharaj
            08737866555/9453316276

शनिवार, 11 अगस्त 2018

शनिवार व्रतकथा एक बार अवश्य पढ़ें
एक समय में स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया. यह विवाद इतना बढ़ा की आपस में भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई. निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इन्द्र के पास पहुंचे और बोले- हे देवराज, आपको निर्णय करना होगा कि हममें से सबसे बड़ा कौन है. देवताओं का प्रश्न सुन इन्द्र उलझन में पड़ गए, फिर उन्होंने सभी को पृथ्वीलोक में उज्जयिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य के पास चलने का सुझाव दिया.

उज्जयिनी पहुंचकर जब देवताओं ने अपना प्रश्न राजा विक्रमादित्य से पूछा तो वह भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी देवता अपनी-2 शक्तियों के कारण महान थे. किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी. अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- सोना, चांदी, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाए. धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवाकर उन्होंने सभी देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा.

देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा- आपका निर्णय तो स्वयं हो गया. जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वहीं सबसे बड़ा है. राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा- हे राजन, तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है. तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो, मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा. शनि देव ने कहा- सूर्य एक राशि पर एक महीने, चन्द्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी भी राशि पर साढ़े सात वर्ष तक रहता हूं. बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बचेगा. इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परन्तु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए.

विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्जयिनी नगरी पहुंचे. राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने को भेजा. घोड़े बहुत कीमती थे. अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस बारे में राजा विक्रमादित्य को बताया तो वह खुद आकर एक सुन्दर और शक्तिशाली घोड़ा पसंद किया.

घोड़े की चाल देखने के लिए राजा जैसे ही उस घोड़े पर सवार हुए वह बिजली की गति से दौड़ पड़ा. तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर वहां राजा को गिराकर गायब हो गया. राजा अपने नगर लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा पर उसे कोई रास्ता नहीं मिला. राजा को भूख प्यास लग आई. बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला. राजा ने उससे पानी मांगा. पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी और उससे रास्ता पूछकर जंगल से निकलकर पास के नगर में चला गया.

नगर पहुंच कर राजा एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया. राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई. सेठ ने राजा को भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन पर ले गया. सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था. राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर चला गया. तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी. राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूंटी निगल गई. सेठ ने जब हार गायब देखा तो उसने चोरी का संदेह राजा पर किया और अपने नौकरों से कहा कि इस परदेशी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो. राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि खूंटी ने हार को निगल लिया. इस पर राजा क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया. सैनिकों ने राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काट कर उसे सड़क पर छोड़ दिया.

कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे कोल्हू पर बैठा दिया. राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता. इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा. शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई. एक रात विक्रमादित्य मेघ मल्हार गा रहा था, तभी नगर की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस घर के पास से गुजरी. उसने मल्हार सुना तो उसे अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा. दासी लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया. राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई और सब कुछ जानते हुए भी उसने अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय किया.

राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वह हैरान रह गए. उन्होंने उसे बहुत समझाया पर राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया. आखिरकार राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा. विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे. उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा- राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया. मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है. राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- हे शनिदेव, आपने जितना दुःख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना.

शनिदेव ने कहा- राजन, मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूं. जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत करके मेरी व्रतकथा सुनेगा, उसपर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी. प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत ख़ुशी हुई. उसने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया. राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई. तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई.

इधर सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुंचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा. राजा ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था. सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया. भोजन करते समय वहां एक आश्चर्य घटना घटी. सबके देखते-देखते उस खूंटी ने हार उगल दिया. सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया.

राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्जयिनी पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष के साथ उनका स्वागत किया. अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं. प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रतकथा अवश्य सुनें. राजा विक्रमादित्य कि घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए. शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएं शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगी. सभी लोग आनंदपूर्वक रहने लगे.

      राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता 
    प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
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Pramod Krishna Shastri


       "आज का सुविचार"
जीवन में अगर 'खुश' रहना है तो,
स्वयं को एक 'शांत सरोवर' की तरह बनाए.....
जिसमें कोई 'अंगारा' भी फेंके तो..
      खुद बख़ुद ठंडा हो जाए..


     "Today's wise thought"
If in life is to be 'happy' then,
Made yourself like a 'calm lake' .....
In which someone also threw 'Angara' ..
   Self-bolt cools down.


National Bhagwat Tale Spokesperson
 Pramod Krishna Shastri ji Maharaj
      08737866555/9453316276


       राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता 

      प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज 
      08737866555/9453316276

शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

वेदानुसार पांच प्रकार के यज्ञ
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1. ब्रह्मयज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ, 5. अतिथि यज्ञ। उक्त पांच यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं विस्तार को नहीं।

ॐ विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं तन्नासुव ।।

-यजुभावार्थ : हे ईश्वर, हमारे सारे दुर्गुणों को दूर कर दो और जो अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव हैं, वे हमें प्रदान करो।'यज्ञ' का अर्थ आग में घी डालकर मंत्र पढ़ना नहीं होता। यज्ञ का अर्थ है- शुभ कर्म। श्रेष्ठ कर्म। सतकर्म। वेदसम्मत कर्म। सकारात्मक भाव से ईश्वर-प्रकृति तत्वों से किए गए आह्वान से जीवन की प्रत्येक इच्छा पूरी होती है। मांगो, विश्वास करो और फिर पा लो। यही है यज्ञ का रहस्य।

1.ब्रह्मयज्ञ👉 जड़ और प्राणी जगत से बढ़कर है मनुष्य। मनुष्य से बढ़कर है पितर, अर्थात माता-पिता और आचार्य। पितरों से बढ़कर हैं देव, अर्थात प्रकृति की पांच शक्तियां, देवी-देवता और देव से बढ़कर है- ईश्वर और हमारे ऋषिगण। ईश्वर अर्थात ब्रह्म। यहब्रह्म यज्ञसंपन्न होता है नित्य संध्यावंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से। इसके करने से ऋषियों का ऋण अर्थात 'ऋषि ऋण' चुकता होता है। इससे ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन भी पुष्ट होता है।

2.देवयज्ञ👉 देवयज्ञ जो सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। इसके लिए वेदी में अग्नि जलाकर होम किया जाता है यही अग्निहोत्र यज्ञ है। यह भी संधिकाल में गायत्री छंद के साथ किया जाता है। इसे करने के नियम हैं। इससे 'देव ऋण' चुकता होता है।हवन करने को 'देवयज्ञ' कहा जाता है। हवन में सात पेड़ों की समिधाएं (लकड़ियां) सबसे उपयुक्त होतीं हैं- आम, बड़, पीपल, ढाक, जांटी, जामुन और शमी। हवन से शुद्धता और सकारात्मकता बढ़ती है। रोग और शोक मिटते हैं। इससे गृहस्थ जीवन पुष्ट होता है।

3.पितृयज्ञ👉 सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है। यह यज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति से। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है।

4.वैश्वदेवयज्ञ👉 इसे भूत यज्ञ भी कहते हैं। पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभीप्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देनाही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि में होम करें जिससे भोजन पकाया गया है। फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दें। ऐसा वेद-पुराण कहते हैं।

5.अतिथि यज्ञ👉 अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग,महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करनाही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्त्तव्य है।अंतत: उक्त पांच यज्ञों के ही पुराणों में अनेक प्रकार और उप-प्रकार हो गए हैं जिनके अलग-अलग नाम हैं और जिन्हें करने की विधियां भी अलग-अलग हैं किंतु मुख्यत:यह पांच यज्ञ ही माने गए हैं।इसके अलावा अग्निहोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोमयज्ञ, राजसूय और अग्निचयन का वर्णण यजुर्वेद में मिलता है किंतु इन्हें आज जिस रूप में किया जाता है पूर्णत: अनुचित है। यहां लिखे हुए यज्ञ के अलावा अन्य किसी प्रकार के यज्ञ नहीं होते। यज्ञकर्म को कर्त्तव्य व नियम के अंतर्गत माना गया है।
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   " राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता"    प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज     8737866555/09453316276

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मंगलवार, 7 अगस्त 2018

विद्यावान गुनी अति चातुर ।
राम काज करिबे को आतुर ।।
एक होता है विद्वान और एक विद्यावान । दोनों में आपस में बहुत अन्तर है ।इसे हम ऐसे समझ सकते हैं ।रावण विद्वान है और हनुमानजी हैं विद्यावान।
            रावण के दस सिर हैं और चार वेद तथा छः शास्त्र दोनों मिलाकर दस हैं ।जिसके सिर में ये दसों भरे हों, वही दस शीस है ।रावण वास्तव में विद्वान है, लेकिन विडम्बना क्या है? सीता जी का हरण करके ले आया ।कई  बार विद्वान लोग अपनी विद्वता के कारण दूसरों को शान्ति से नहीं रहने देते ।उनका अभिमान दूसरों की सीता रूपी शान्ति का हरण कर लेता है और हनुमानजी !

          हनुमानजी उन्हीं खोई हुई सीता रूपी शान्ति को वापस भगवान से मिला देते हैं ।यही विद्वान और विद्यावान में अन्तर है ।
          हनुमानजी गये, रावण को समझाने। यही विद्वान और विद्यावान का मिलन है ।हनुमानजी ने कहा --
विनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।
           हनुमानजी ने हाथ जोड़कर कहा कि मैं विनती करता हूँ ।तो क्या हनुमानजी में बल नहीं है? ऐसा नहीं है
          विनती दोनों करते हैं, जो भय से भरा हो या भाव से भरा हो।रावण ने कहा कि तुम  क्या,  यहाँ देखो कितने लोग हाथ जोड़कर खड़े हैं ।
कर जोरे सुर दिसिप विनीता।
भृकुटि विलोकत सकल सभीता।।
             देवता और दिग्पाल भय से हाथ जोड़े खड़े हैं और भृकुटि की ओर देख रहे हैं ।परंतु हनुमानजी भय से हाथ जोड़कर नहीं खड़े हैं ।
रावण ने कहा भी --
कीधौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही।।
           तुमने मेरे बारे में सुना नहीं है? बहुत निडर दिखता है ।हनुमानजी बोले --यह जरूरी है कि तुम्हारे सामने जो आये, वह डरता हुआ आये? रावण बोला - देख लो, यहाँ जितने देवता और अन्य खड़े हैं, वे सब डर कर खड़े हैं ।
           हनुमानजी बोले --उनके डर का कारण है, वे तुम्हारी भृकुटि की ओर देख रहे हैं ।

भृकुटी विलोकत सकल सभीता।

             परंतु मैं भगवान राम की भृकुटि की ओर देखता हूँ ।उनकी भृकुटि कैसी है? बोले ---

भृकुटि विलास सृष्टि लय होई।
सपनेहु संकट परै कि सोई।।
               जिनकी भृकुटि टेढ़ी हो जाय तो प्रलय हो जाय और उनकी ओर देखने बाले पर स्वप्न में भी संकट नहीं आता। मैं उन राम जी की भृकुटि की ओर देखता हूँ ।
रावण बोला - यह विचित्र बात है ।जब राम जी की भृकुटि की ओर देखते हो तो हाथ हमारे क्यों जोड़ रहे हो?
विनती करउँ जोरि कर रावन।
           हनुमानजी बोले -यह तुम्हारा भ्रम है ।हाथ तो मैं उन्हीं को जोड़ रहा हूँ ।
रावण बोला --वे यहाँ कहाँ हैं।हनुमानजी ने कहा कि यही समझाने आया हूँ ।राम जी ने कहा था --
सो अनन्य जाकें असि
           मति न टरइ हनुमन्त।
मैं सेवक सचराचर
           रूप स्वामि भगवन्त।।
           भगवान ने कहा कि सबमें मुझको देखना ।इसीलिए मैं तुम्हें नहीं, तुममे भी भगवान को ही देख रहा हूँ ।
           इसलिए हनुमानजी कहते हैं ।
 खायउँ फल प्रभु लागी भूखा।  और,
सबके देह परम प्रिय स्वामी।
           हनुमानजी रावण को प्रभु और स्वामी कहते हैं और रावण --

मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही।।
           रावण खल और अधम कहकर हनुमानजी को सम्बोधित करता है ।
           यही विद्यावान का लक्षण है ।अपने को गाली देने वाले में भी जिसे भगवान दिखाई दें ।वही विद्यावान है ।विद्यावान का एक लक्षण है, कहा ---
विद्या ददाति विनयं
विनयाति याति पात्रताम ।पढ़लिखकर जो विनम्र हो जाय, वह विद्यावान और जो पढ़ लिख कर अकड़ जाय, वह विद्वान।तुलसीदास जी कहते हैं --2--
बरसहिं जलद भूमि नियराये।
जथा नवहिं वुध विद्या पाये।।
          बादल जल से भरने पर नीचे आ जाते हैं, जैसे विचारवान व्यक्ति विद्या पाकर विनम्र हो जाते हैं ।तो हनुमानजी हैं विनम्र और रावण है विद्वान ।
            विद्वान कौन? कहा कि जिसकी दिमागी क्षमता तो बढ़ गयी परंतु दिल खराब हो।हृदय में अभिमान हो, और विद्यावान कौन? कहा कि जिसके हृदय में भगवान हो, और जो दूसरों के हृदय में भी भगवान को विठाने की बात करे।हनुमानजी ने कहा --रावण ! और तो ठीक है, पर तुम्हारा दिल ठीक नहीं है ।कैसे ठीक होगा? कहा कि --
राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राज तुम करहू।।
          अपने हृदय में राम जी को बिठा लो और फिर मजे से लंका में राज करो।तो हनुमानजी रावण के हृदय में भगवान को विठाने की बात करते हैं, इसलिए वे विद्यावान हैं ।
सीख :- विद्यावान बनने का प्रयत्न करें ।
अन्य समूह से प्राप्त् संदेश।           
मेरा मुझमे कुछ नही
राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता 
प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
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