शरीरं सुरूपं नवीनं कलत्रं
धनं मेरुतुल्यं यशश्चारु चित्रम्।
हरेरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किम्॥
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भावार्थ :- शरीर चाहे कितना भी सुन्दर हो , पत्नी चाहे कितनी भी मनमोहिनी हो , धन चाहे कितना भी सुमेरु पर्वत की भाँति असीम हो और सम्पूर्ण विश्व में चाहे कितना भी यश प्राप्त हो चुका हो, परन्तु जब तक जीवन देने वाले भगवान् श्रीहरि के चरणकमलों में मन नहीं लगा तब तक क्या प्राप्त किया ? क्या पाया ? अर्थात् सब व्यर्थ है ।
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卐भागवत कथा प्रवक्ता卐
प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
श्री धाम वृंदावन मथुरा (उत्तर प्रदेश)
Ph 09453316276 / 08737866555
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