रविवार, 30 सितंबर 2018




      "राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता"
      प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
      8637866555 9453316276
        

बुधवार, 19 सितंबर 2018

!! राधे राधे - आज का भगवद चिन्तन !!

!! राधे राधे - आज का भगवद चिन्तन !!
               19-09-2018
       आज का आदमी मेहनत में कम और मुकद्दर में ज्यादा विश्वास रखता है। आज का आदमी सफल तो होना चाहता है मगर उसके लिए कुछ खोना नहीं चाहता है। वह भूल रहा है कि सफलताएँ किस्मत से नहीं मेहनत से मिला करती हैं। 
       किसी की शानदार कोठी देखकर कई लोग कह उठते हैं कि काश अपनी किस्मत भी ऐसी होती लेकिन वे लोग तब यह भूल जाते हैं कि ये शानदार कोठी, शानदार गाड़ी उसे किस्मत ने ही नहीं दी अपितु इसके पीछे उसकी कड़ी मेहनत रही है। मुकद्दर के भरोसे रहने वालों को सिर्फ उतना मिलता है जितना मेहनत करने वाले छोड़ दिया करते हैं।
       किस्मत का भी अपना महत्व है। मेहनत करने के बाद किस्मत पर आश रखी जा सकती है मगर खाली किस्मत के भरोसे सफलता प्राप्त करने से बढ़कर कोई दूसरी नासमझी नहीं हो सकती है।
       दो अक्षर का होता है "लक", ढाई अक्षर का होता है "भाग्य", तीन अक्षर का होता है "नसीव" लेकिन चार अक्षर के शब्द मेंहनत के चरणों में ये सब पड़े रहते हैं
      राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता
    प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
   08737866555/9453316276



शारदीय नवरात्रि में कलश स्थापना की शुभ मुहूर्त क्या है जानिए 

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

प्रतिदिन आप अपने घर में झाड़ू लगाते हैं , क्योंकि धूल मिट्टी रोज आती रहती है । रोज़ सफाई करते हैं फिर भी धूल मिट्टी आती है। तो जैसे घर की शुद्धि करण करना प्रतिदिन आवश्यक है , ऐसे ही शरीर की शुद्धि मन की शुद्धि जीवन की शुद्धि धन की शुद्धि करना भी बहुत आवश्यक है। इससे व्यक्ति का जीवन पवित्र बना रहता है । व्यक्ति चिंता तनाव घृणा ईर्ष्या द्वेष अभिमान आदि दोषों से बचा रहता है। और उसके जीवन में आनंद उत्साह निर्भयता सेवा परोपकार दान दया आदि गुण उत्पन्न होते जाते हैं । इन गुणों को जीवन में उत्पन्न करें और अपने जीवन को सुंदर बनाएं !
  ॐ   राधे राधे   ॐ

असफलता ही सफलता की कुंजी है !!Pramod Krishna Shastri


"राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता"

प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज   

श्री धाम वृंदावन(मथुराUP)        

   Call 8737866555


Every day you broom in your house because dust keeps coming in the soil everyday. Daily cleanings still come dust mud. So, it is necessary to purify the house every day, just as purification of the body purification of purity is also necessary to purify the purification of life. This keeps the person's life pure. Individual anxiety strain hatred avoids jealousy, pride, defects etc. And in his life, the joy arises, fearlessness service charity charity charity becomes attributable. Generate these qualities in life and make your life beautiful!

ॐ Radhe radhe ॐ


"National Bhagwat Story spokesman"
  Pramod Krishna Shastri ji Maharaj
 Shri Dham Vrindavan (Mathura UP)
                Call  8737866555

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

   卐 स्वस्तिक का महत्व 卐 
   स्वास्तिक का 卐 चिन्ह किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पहले हिन्दू धर्म में स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर उसकी पूजा करने का महत्व है। मान्यता है कि ऐसा करने से कार्य सफल होता है। स्वास्तिक के चिन्ह को मंगल प्रतीक भी माना जाता है। स्वास्तिक शब्द को ‘सु’ और ‘अस्ति’ का मिश्रण योग माना जाता है। यहां ‘सु’ का अर्थ है शुभ और ‘अस्ति’ से तात्पर्य है होना। अर्थात स्वास्तिक का मौलिक अर्थ है ‘शुभ हो’, ‘कल्याण हो’।

शुभ कार्य यही कारण है कि किसी भी शुभ कार्य के दौरान स्वास्तिक को पूजना अति आवश्यक माना गया है। लेकिन असल में स्वस्तिक का यह चिन्ह क्या दर्शाता है, इसके पीछे ढेरों तथ्य हैं। स्वास्तिक में चार प्रकार की रेखाएं होती हैं, जिनका आकार एक समान होता है।

चार रेखाएं मान्यता है कि यह रेखाएं चार दिशाओं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं। लेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों - ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं। कुछ यह भी मानते हैं कि यह चार रेखाएं सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती हैं।

चार देवों का प्रतीक इसके अलावा इन चार रेखाओं की चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार लोक और चार देवों यानी कि भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश (भगवान शिव) और गणेश से तुलना की गई है। स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोड़ने के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है।

मध्य स्थान मान्यता है कि यदि स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है, तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है, जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं। इसके अलावा यह मध्य भाग संसार के एक धुर से शुरू होने की ओर भी इशारा करता है।

सूर्य भगवान का चिन्ह स्वास्तिक की चार रेखाएं एक घड़ी की दिशा में चलती हैं, जो संसार के सही दिशा में चलने का प्रतीक है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यदि स्वास्तिक के आसपास एक गोलाकार रेखा खींच दी जाए, तो यह सूर्य भगवान का चिन्ह माना जाता है। वह सूर्य देव जो समस्त संसार को अपनी ऊर्जा से रोशनी प्रदान करते हैं।

बौद्ध धर्म में स्वास्तिक हिन्दू धर्म के अलावा स्वास्तिक का और भी कई धर्मों में महत्व है। बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।

जैन धर्म में स्वास्तिक वैसे तो हिन्दू धर्म में ही स्वास्तिक के प्रयोग को सबसे उच्च माना गया है लेकिन हिन्दू धर्म से भी ऊपर यदि स्वास्तिक ने कहीं मान्यता हासिल की है तो वह है जैन धर्म। हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा महत्व स्वास्तिक का जैन धर्म में है। जैन धर्म में यह सातवं जिन का प्रतीक है, जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।

हड़प्पा सभ्यता में स्वास्तिक सिंधु घाटी की खुदाई के दौरान स्वास्तिक प्रतीक चिन्ह मिला। ऐसा माना जाता है हड़प्पा सभ्यता के लोग भी सूर्य पूजा को महत्व देते थे। हड़प्पा सभ्यता के लोगों का व्यापारिक संबंध ईरान से भी था। जेंद अवेस्ता में भी सूर्य उपासना का महत्व दर्शाया गया है। प्राचीन फारस में स्वास्तिक की पूजा का चलन सूर्योपासना से जोड़ा गया था, जो एक काबिल-ए-गौर तथ्य है।

विश्व भर में स्वास्तिक विभिन्न मान्यताओं एवं धर्मों में स्वास्तिक को महत्वपूर्ण माना गया है। भारत में और भी कई धर्म हैं जो शुभ कार्य से पहले स्वास्तिक के चिन्ह को इस्तेमाल करना जरूरी समझते हैं। लेकिन केवल भारत ही क्यों, बल्कि विश्व भर में स्वास्तिक को एक अहम स्थान हासिल है।

जर्मनी में स्वास्तिक यहां हम विश्व भर में मौजूद हिन्दू मूल के उन लोगों की बात नहीं कर रहे जो भारत से दूर रह कर भी शुभ कार्यों में स्वास्तिक को इस्तेमाल कर अपने संस्कारों की छवि विश्व भर में फैला रहे हैं, बल्कि असल में स्वास्तिक का इस्तेमाल भारत से बाहर भी होता है। एक अध्ययन के मुताबिक जर्मनी में स्वास्तिक का इस्तेमाल किया जाता है।

जर्मनी के नाज़ी वर्ष 1935 के दौरान जर्मनी के नाज़ियों द्वारा स्वास्तिक के निशान का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन यह हिन्दू मान्यताओं के बिलकुल विपरीत था। यह निशान एक सफेद गोले में काले ‘क्रास’ के रूप में उपयोग में लाया गया, जिसका अर्थ उग्रवाद या फिर स्वतंत्रता से सम्बन्धित था।

अमरीकी सेना लेकिन नाज़ियों से भी बहुत पहले स्वास्तिक का इस्तेमाल किया गया था। अमरीकी सेना ने पहले विश्व युद्ध में इस प्रतीक चिह्न का इस्तेमाल किया था। ब्रितानी वायु सेना के लड़ाकू विमानों पर इस चिह्न का इस्तेमाल 1939 तक होता रहा था।

जर्मन भाषा और संस्कृत में समानताएं लेकिन करीब 1930 के आसपास इसकी लोकप्रियता में कुछ ठहराव आ गया था, यह वह समय था जब जर्मनी की सत्ता में नाज़ियों का उदय हुआ था। उस समय किए गए एक शोध में बेहद दिलचस्प बात निकल कर सामने आई। शोधकर्ताओं ने माना कि जर्मन भाषा और संस्कृत में कई समानताएं हैं। इतना ही नहीं, भारतीय और जर्मन दोनों के पूर्वज भी एक ही रहे होंगे और उन्होंने देवताओं जैसे वीर आर्य नस्ल की परिकल्पना की।

स्वास्तिक का आर्य प्रतीक के रूप पर बल इसके बाद से ही स्वास्तिक चिन्ह का आर्य प्रतीक के तौर पर चलन शुरू हो गया। आर्य प्रजाति इसे अपना गौरवमय चिन्ह मानती थी। लेकिन 19वीं सदी के बाद 20वीं सदी के अंत तक इसे नफ़रत की नज़र से देखा जाने लगा। नाज़ियों द्वारा कराए गए यहूदियों के नरसंहार के बाद इस चिन्ह को भय और दमन का प्रतीक माना गया था।

चिह्न पर प्रतिबंध युद्ध ख़त्म होने के बाद जर्मनी में इस प्रतीक चिह्न पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और 2007 में जर्मनी ने यूरोप भर में इस पर प्रतिबंध लगवाने की नाकाम पहल की थी। माना जाता है कि स्वास्तिक के चिह्न की जड़ें यूरोप में काफी गहरी थीं।

प्प्राचीन ग्रीस के लोग इसका इस्तेमाल करते थे। पश्चिमी यूरोप में बाल्टिक से बाल्कन तक इसका इस्तेमाल देखा गया है। यूरोप के पूर्वी भाग में बसे यूक्रेन में एक नेशनल म्यूज़ियम स्थित है। इस म्यूज़ियम में कई तरह के स्वास्तिक चिह्न देखे जा सकते हैं, जो 15 हज़ार साल तक पुराने हैं।

लाल रंग ही क्यों यह सभी तथ्य हमें बताते हैं कि केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कोने-कोने में स्वास्तिक चिन्ह ने अपनी जगह बनाई है। फिर चाहे वह सकारात्मक दृष्टि से हो या नकारात्मक रूप से। परन्तु भारत में स्वास्तिक चिन्ह को सम्मान दिया जाता है और इसका विभिन्न रूप से इस्तेमाल किया जाता है। यह जानना बेहद रोचक होगा कि केवल लाल रंग से ही स्वास्तिक क्यों बनाया जाता है?

लाल रंग का सर्वाधिक महत्व भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुमकुम के रूप में किया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को भी दर्शाता है। धार्मिक महत्व के अलावा वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाल रंग को सही माना जाता है।

शारीरिक व मानसिक स्तर लाल रंग व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। हमारे सौर मण्डल में मौजूद ग्रहों में से एक मंगल ग्रह का रंग भी लाल है। 

यह एक ऐसा ग्रह है जिसे साहस, पराक्रम, बल व शक्ति के लिए जाना जाता है। यह कुछ कारण हैं जो स्वास्तिक बनाते समय केवल लाल रंग के उपयोग की ही सलाह देते हैं।
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卐राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता卐
  प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
       श्री धाम वृंदावन (मथुरा)
 08737866555//9453316276

गुरुवार, 13 सितंबर 2018

श्रीगणेश के विभिन्न रूपों के पूजन के फल
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जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥

भावार्थ:-जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श्री गणेशजी) मुझ पर कृपा करें॥

किसी भी कार्य में सबसे पहले श्रीगणेश का ही नाम लिया जाता है। जिस प्रकार श्रीगणेश का नाम मात्र  लेने से सारे दु:ख व परेशानियां दूर हो जाती हैं, वैसे ही श्रीगणेश के  11 प्रकार के स्वरूपों में से किसी एक का  विधि-विधान से पूजन कर घर में स्थापित किया जाए तो कुछ ही समय में आपकी किस्मत चमक सकती  हैं। श्रीगणेश के विभिन्न रूप अपने भक्तों के समस्त दु:खों को हरने वाले माने गए हैं।

सफेद आंकड़े के गणेश👉  तंत्र क्रियाओं में सफेद आंकड़ा (एक प्रकार का पौधा) की जड़ से निर्मित श्रीगणेश का विशेष महत्व है। इसे श्वेतार्क गणपति भी कहते हैं। कई टोने-टोटकों में श्रीगणेश के इस स्वरूप का उपयोग किया जाता है। श्वेतार्क गणपति को घर में स्थापित कर विधि-विधान से पूजा करने पर घर में किसी ऊपरी बाधा का असर नहीं होता।

मूंगे के गणेश👉  मूंगा सिंदूरी रंग का एक रत्न होता है। इससे निर्मित श्रीगणेश की प्रतिमा को पूजा स्थान पर स्थापित करने व नित्य पूजा करने से शत्रुओं का भय समाप्त हो जाता है, साथ ही इससे बने श्रीगणेश अपने भक्तों की हर मनोकामना पूरी करते हैं।

पन्ने के गणेश👉  पन्ना भी हरे रंग का एक रत्न होता है। इससे निर्मित श्रीगणेश की प्रतिमा की पूजा स्थान पर स्थापित कर विधि-विधान से पूजा करने पर बुद्धि व यश प्राप्त होता है। विद्यार्थियों के लिए पन्ने के गणेशजी की पूजा करना श्रेष्ठ होता है।

चांदी के गणेश👉  जो लोग धन की इच्छा रखते हैं, उन्हें चांदी से निर्मित गणेश प्रतिमा की पूजा करना चाहिए। इन्हें पूजा घर में स्थापित कर दूर्वा चढ़ाने से धन-संपत्ति में वृद्धि होती है और धन का आगमन भी तेजी से होने लगता है। इनकी पूजा करने से जीवन का सुख प्राप्त होता है।

चंदन की लकड़ी के गणेश👉  चंदन की लकड़ी से निर्मित श्रीगणेश की प्रतिमा घर में कहीं भी स्थापित कर सकते हैं। इससे घर में किसी प्रकार की विपदा नहीं आती, साथ ही परिवार के सदस्यों में सामंजस्य बना रहता है व पारिवारिक माहौल खुशहाल रहता है।

पारद गणेश👉  धन-संपत्ति प्राप्ति के लिए पारद यानी पारे से निर्मित गणेश प्रतिमा की पूजा भी की जाती है। यदि किसी ने आपके घर पर या घर के किसी सदस्य पर तंत्र प्रयोग किया हो, तो पारद गणेश की पूजा से उसका कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता।

बांसुरी बजाते गणेश👉  यदि आपके घर में रोज क्लेश या विवाद होता है, तो आपको बांसुरी बजाते हुए श्रीगणेश की तस्वीर या मूर्ति घर में स्थापित करना चाहिए। बांसुरी बजाते हुए श्रीगणेश की पूजा करने से घर में सुख-शांति का वातावरण रहता है।

हरे रंग के गणेश👉 हरे रंग के श्रीगणेश की पूजा करने से ज्ञान व बुद्धि की वृद्धि होती है। विद्यार्थियों को विशेषतौर पर हरे रंग की श्रीगणेश की मूर्ति या तस्वीर का पूजन करना चाहिए।

हाथी पर बैठे गणेश👉  यदि आप धन की इच्छा रखते हैं, तो आपको हाथी पर बैठे श्रीगणेश की पूजा करना चाहिए। हाथी पर विराजित श्रीगणेश की पूजा करने से पैसा, इज्जत व शोहरत मिलती है।

नाचते हुए गणेश👉 नाचते हुए गणेश की पूजा करने से मन को शांति का अनुभव होता है। यदि आप किसी तनाव में हैं, तो आपको प्रतिदिन नाचते हुए श्रीगणेश की पूजा करना चाहिए।

पंचमुखी गणेश👉  तंत्र क्रिया की सिद्धि के लिए पंचमुखी श्रीगणेश का पूजन किया जाता है, इससे कोई भी तंत्र क्रिया किसी भी बाधा के संपन्न हो जाती है।
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  राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता 
प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
      08737866555

बुधवार, 12 सितंबर 2018


श्रीमदभागवत महापुराण कथा अजामिल का सम्पूर्ण प्रसंग एक बार अवश्य पढ़ें 
शुकदेवजी महाराज राजा परीक्षित से कहते हैं,कि हे प्रिय परीक्षित्! यह कथा परम गोपनीय—अत्यन्त रहस्यमय है। मलय पर्वत पर विराजमान भगवान् अगस्त्यजी ने श्रीहरि की पूजा करते समय मुझे यह सुनाया था,आप भी सुने,,,,,,
कान्यकुब्ज (कन्नौज) में एक ब्राम्हण रहता था। उसका नाम अजामिल था। यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था। शील, सदाचार और सद्गुणों का तो यह खजाना ही था। ब्रम्हचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेत्ता और पवित्र भी था। इसने गुरु, संत-महात्माओं सबकी सेवा की थी। एक बार अपने पिता के आदेशानुसार वन में गया और वहाँ से फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घर के लिये लौटा। लौटते समय इसने देखा की एक व्यक्ति मदिरा पीकर किसी वेश्या के साथ विहार कर रहा है।
वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है। अजामिल ने पाप किया नहीं केवल आँखों से देखा और काम के वश हो गया । अजामिल ने अपने मन को रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन नाकाम रहा। अब यह मन-ही-मन उसी वेश्या का चिन्तन करने लगा और अपने धर्म से विमुख हो गया ।
अजामिल सुन्दर-सुन्दर वस्त्र-आभूषण आदि वस्तुएँ, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले आता। यहाँ तक कि इसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटा को रिझाया। यह ब्राम्हण उसी प्रकार की चेष्टा करता, जिससे वह वेश्या प्रसन्न हो।
इस वेश्या के चक्कर में इसने अपनी कुलीन नवयुवती विवाहिता पत्नी तक का परित्याग कर दिया और उस वैश्या के साथ रहने लगा। इसने बहुत दिनों तक वेश्या के मल-समान अपवित्र अन्न से अपना जीवन व्यतीत किया और अपना सारा जीवन ही पापमय कर लिया। यह कुबुद्धि न्याय से, अन्याय से जैसे भी जहाँ कहीं भी धन मिलता, वहीं से उठा लाता। उस वेश्या के बड़े कुटुम्ब का पालन करने में ही यह व्यस्त रहता। चोरी से, जुए से और धोखा-धड़ी से अपने परिवार का पेट पालता था।
एक बार कुछ संत इसके गांव में आये। गाँव के बाहर संतों ने कुछ लोगों से पूछा की भैया, किसी ब्राह्मण का घर बताइए हमें वहां पर रात गुजारनी है। इन लोगों ने संतों के साथ मजाक किया और कहा- संतों- हमारे गाँव में तो एक ही श्रेष्ठ ब्राह्मण है जिसका नाम है अजामिल। और इतना बड़ा भगवान का भक्त है की गाँव के अंदर नहीं रहता गाँव के बाहर ही रहता है।
अब संत जन अजामिल के घर पहुंचे और दरवाजा खटखटाया- भक्त अजामिल दरवाजा खोलो। जैसे ही अजामिल ने आज दरवाजा खोला तो संतों के दर्शन करते ही उसे अपने पुराने अच्छे कर्म याद आ गए।
संतों ने कहा की भैया- रात बहुत हो गई है आप हमारे लिए भोजन और सोने का प्रबंध कीजिये।अजामिल ने सुंदर भोजन तैयार करवाया और संतो को करवाया। जब अजामिल ने संतों से सोने के लिए कहा तो संत कहते हैं भैया- हम प्रतिदिन सोने से पहले कीर्तन करते हैं। यदि आपको समस्या न हो तो हम कीर्तन करलें?
अजामिल ने कहा- आप ही का घर है महाराज! जो दिल में आये सो करो।
संतों ने सुंदर कीर्तन प्रारम्भ किया और उस कीर्तन में अजामिल बैठा। सारी रात कीर्तन चला और अजामिल की आँखों से खूब आसूं गिरे हैं। मानो आज आँखों से आंसू नहीं पाप धूल गए हैं। उसने सारी रात भगवान का नाम लिया ।
जब सुबह हुई संत जन चलने लगे तो अजामिल ने कहा- महात्माओं, मुझे क्षमा कर दीजिये। मैं कोई भक्त वक्त नहीं हूँ। मैं तो एक महा पापी हूँ। मैं वैश्या के साथ रहता हु और मुझे गाँव से बाहर निकाल दिया गया है केवल आपकी सेवा के लिए मैंने आपको भोजन करवाया नहीं तो मुझसे बड़ा पापी कोई नहीं है।
संतों ने कहा- अरे अजामिल! तूने ये बात हमें कल क्यों नहीं बताई, हम तेरे घर में रुकते ही नहीं।
अब तूने हमें आश्रय दिया है तो चिंता मत कर। ये बता तेरे घर में कितने बालक हैं। अजामिल ने बता दिया की महाराज 9 बच्चे हैं और अभी ये गर्भवती है।
संतों ने कहा की अबके जो तेरे संतान होंगी वो तेरे पुत्र होगा। और तू उसका नाम “नारायण” रखना। जा तेरा कल्याण हो जायेगा।
संत जन आशीर्वाद देकर चले गए। समय बिता उसके पुत्र हुआ। नाम रखा नारायण। अजामिल अपने नारायण पुत्र में बहुत आशक्त था। अजामिल ने अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायण को सौंप दिया था। हर समय अजामिल कहता था- नारायण भोजन करलो।
नारायण पानी पी लो। नारायण तुम्हारा खेलने का समय है तुम खेल लो। हर समय नारायण नारायण करता था।
इस तरह अट्ठासी वर्ष बीत गए। वह अतिशय मूढ़ हो गया था, उसे इस बात का पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिर पर आ पहुँची है ।
अब वह अपने पुत्र बालक नारायण के सम्बन्ध में ही सोचने-विचारने लगा। इतने में ही अजामिल ने देखा कि उसे ले जाने के लिये अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आये हैं। उनके हाथों में फाँसी है, मुँह टेढ़े-टेढ़े हैं और शरीर के रोएँ खड़े हुए हैं । उस समय बालक नारायण वहाँ से कुछ दूरी पर खेल रहा था।
यमदूतों को देखकर अजामिल डर गया और अपने पुत्र को कहता हैं-नारायण! नारायण मेरी रक्षा करो! नारायण मुझे बचाओ!
भगवान् के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायण का नाम ले रहा है, उनके नाम का कीर्तन कर रहा है; अतः वे बड़े वेग से झटपट वहाँ आ पहुँचे । उस समय यमराज के दूर दासीपति अजामिल के शरीर में से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे। विष्णु दूतों ने बलपूर्वक रोक दिया ।
उनके रोकने पर यमराज के दूतों ने उनसे कहा—‘अरे, धर्मराज की आज्ञा का निषेध करने वाले तुम लोग हो कौन ? तुम किसके दूत हो, कहाँ से आये हो और इसे ले जाने से हमें क्यों रोक रहे हो ?
जब यमदूतों ने इस प्रकार कहा, तब भगवान् नारायण के आज्ञाकारी पार्षदों ने हँसकर कहा—यमदूतों! यदि तुम लोग सचमुच धर्मराज के आज्ञाकारी हो तो हमें धर्म का लक्षण और धर्म का तत्व सुनाओ । दण्ड का पात्र कौन है ?
यमदूतों ने कहा—वेदों ने जिन कर्मों का विधान किया है, वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं। वेद स्वयं भगवान् के स्वरुप हैं। वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयं प्रकाश ज्ञान हैं—ऐसा हमने सुना है । पाप कर्म करने वाले सभी मनुष्य अपने-अपने कर्मों के अनुसार दण्डनीय होते हैं ।
भगवान् के पार्षदों ने कहा—यमदूतों! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि धर्मज्ञों की सभा में अधर्म प्रवेश कर रह है, क्योंकि वहाँ निरपराध और अदण्डनीय व्यक्तियों को व्यर्थ ही दण्ड दिया जाता है । यमदूतों! इसने कोटि-कोटि जन्मों की पाप-राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया है।
क्योंकि इसने विवश होकर ही सही, भगवान् के परम कल्याणमय (मोक्षप्रद) नाम का उच्चारण तो किया है । जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय केवल उतने से ही इस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया ।
चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रम्हघाती, गुरुपत्नीगामी, ऐसे लोगों का संसर्गी; स्त्री, राजा, पिता और गाय को मारने वाला, चाहे जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभी के लिये यही—इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान् के नामों का उच्चारण किया जाय; क्योंकि भगवन्नामों के उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान् के गुण, लीला और स्वरुप में रम जाती है और स्वयं भगवान् की उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है ।
तुम लोग अजामिल को मत ले जाओ। इसने सारे पापों का प्रायश्चित कर लिया है, क्योंकि इसने मरते समय भगवान् के नाम का उच्चारण किया है।
इस प्रकार भगवान् के पार्षदों ने भागवत-धर्म का पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया और अजामिल को यमदूतों के पाश से छुड़ाकर मृत्यु के मुख से बचा लिया भगवान् की महिमा सुनने से अजामिल के हृदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गया।
अब उसे अपने पापों को याद करके बड़ा पश्चाताप होने लगा । (अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा—) ‘अरे, मैं कैसा इन्द्रियों का दास हूँ! मैंने एक दासी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करके अपना ब्राम्हणत्व नष्ट कर दिया। यह बड़े दुःख की बात है। धिक्कार है! मुझे बार-बार धिक्कार है! मैं संतों के द्वारा निन्दित हूँ, पापात्मा हूँ! मैंने अपने कुल में कलंक का टीका लगा दिया!
मेरे माँ-बाप बूढ़े और तपस्वी थे। मैंने उनका भी परित्याग कर दिया। ओह! मैं कितना कृतघ्न हूँ। मैं अब अवश्य ही अत्यन्त भयावने नरक में गिरूँगा, जिसमें गिरकर धर्मघाती पापात्मा कामी पुरुष अनेकों प्रकार की यमयातना भोगते हैं। कहाँ तो मैं महाकपटी, पापी, निर्लज्ज और ब्रम्हतेज को नष्ट करने वाला तथा कहाँ भगवान् का वह परम मंगलमय ‘नारायण’ नाम! (सचमुच मैं तो कृतार्थ हो गया)।
अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश में करके ऐसा प्रयत्न करूँगा कि फिर अपने को घोर अन्धकारमय नरक में न डालूँ । मैंने यमदूतों के डर अपने पुत्र “नारायण” को पुकारा। और भगवान के पार्षद प्रकट हो गए यदि मैं वास्तव में नारायण को पुकारता तो क्या आज श्री नारायण मेरे सामने प्रकट नहीं हो जाते?
अब अजामिल के चित्त में संसार के प्रति तीव्र वैराग्य हो गया। वे सबसे सम्बन्ध और मोह को छोड़कर हरिद्वार चले गये। उस देवस्थान में जाकर वे भगवान् के मन्दिर में आसन से बैठ गये और उन्होंने योग मार्ग का आश्रय लेकर अपनी सारी इन्द्रियों को विषयों से हटाकर मन में लीन कर लिया और मन को बुद्धि में मिला दिया।
इसके बाद आत्मचिन्तन के द्वारा उन्होंने बुद्धि को विषयों से पृथक् कर लिया तथा भगवान् के धाम अनुभव स्वरुप परब्रम्ह में जोड़ दिया । इस प्रकार जब अजामिल की बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृति से ऊपर उठकर भगवान् के स्वरुप में स्थित हो गयी, तब उन्होंने देखा कि उनके सामने वे ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं।
अजामिल ने सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। उनका दर्शन पाने के बाद उन्होंने उस तीर्थस्थान में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान् के पार्षदों का स्वरुप प्राप्त कर दिया ।
अजामिल भगवान् के पार्षदों के साथ स्वर्णमय विमान पर आरूढ़ होकर आकाश मार्ग से भगवान् लक्ष्मीपति के निवास स्थान वैकुण्ठ को चले गये।
शुकदेव जी महाराज कहते हैं परीक्षित्! यह इतिहास अत्यन्त गोपनीय और समस्त पापों का नाश करने वाला है। जो पुरुष श्रद्धा और भक्ति के साथ इसका श्रवण-कीर्तन करता है, वह नरक में कही नहीं जाता। यमराज के दूत तो आँख उठाकर उसकी ओर देख तक नहीं सकते।
उस पुरुष का जीवन चाहे पापमय ही क्यों न रहा हो, वैकुण्ठलोक में उसकी पूजा होती है । परीक्षित्! देखो-अजामिल-जैसे पापी ने मृत्यु के समय पुत्र के बहाने भगवान् नाम का उच्चारण किया! उसे भी वैकुण्ठ की प्राप्ति हो गयी! फिर जो लोग श्रद्धा के साथ भगवन्नाम का उच्चारण करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है ।
यमदूत और यमराज का संवाद
जब भगवान के पार्षदों ने यमदूतों से अजामिल को छुड़ाया तो यमदूत यमराज के पास पहुंचे और कहते हैं-
प्रभो! संसार के जीव तीन प्रकार के कर्म करते हैं—पाप, पुण्य अथवा दोनों से मिश्रित। इन जीवों को उन कर्मों का फल देने वाले शासक संसार में कितने हैं ?
हम तो ऐसा समझते हैं कि अकेले आप ही समस्त प्राणियों और उनके स्वामियों के भी अधीश्वर हैं। आप ही मनुष्यों के पाप और पुण्य के निर्णायक, दण्डदाता और शासक हैं।
यमराज ने कहा—दूतों! मेरे अतिरिक्त एक और ही चराचर जगत् के स्वामी हैं। उन्हीं में यह सम्पूर्ण जगत् सूत में वस्त्र के समान ओत-प्रोत है। उन्हीं के अंश, ब्रम्हा, विष्णु और शंकर इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करते हैं। उन्हीं ने इस सारे जगत् को नथे हुए बैल के समान अपने अधीन कर रखा है।
मेरे प्यारे दूतों! जैसे किसान अपने बैलों को पहले छोटी-छोटी रस्सियों में बाँधकर फिर उन रस्सियों को एक बड़ी आड़ी रस्सी में बाँध देते हैं, वैसे ही जगदीश्वर भगवान् ने भी ब्रम्हाणादि वर्ण और ब्रम्हचर्य आदि आश्रम रूप छोटी-छोटी नाम की रस्सियों में बाँधकर फिर सब नामों को वेदवाणी रूप बड़ी रस्सी में बाँध रखा है। इस प्रकार सारे जीव नाम एवं कर्म रूप बन्धन में बँधे हुए भयभीत होकर उन्हें ही अपना सर्वस्व भेंट कर रहे हैं।
सभी भगवान के आधीन हैं इनमें मैं, इन्द्र, निर्ऋति, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, शंकर, वायु, सूर्य, ब्रम्हा, बारहों आदित्य, विश्वेदेवता, आठों वसु, साध्य, उनचास मरुत्, सिद्ध, ग्यारहों रूद्र, रजोगुण एवं तमोगुण से रहित भृगु आदि प्रजापति और बड़े-बड़े देवता।
भगवान् के नामोच्चारण की महिमा तो देखो, अजामिल-जैसा पापी भी एक बार नामोच्चारण करने मात्र से मृत्युपाश से छुटकारा पा गया। भगवान् के गुण, लीला और नामों का भलीभाँति कीर्तन मनुष्यों के पापों का सर्वथा विनाश कर दे, यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है, क्योंकि अत्यन्त पापी अजामिल ने मरने के समय चंचल चित्त से अपने पुत्र का नाम ‘नारायण’ उच्चारण किया।
उस नामाभासमात्र से ही उसके सारे पाप तो क्षीण हो ही गये, मुक्ति की प्राप्ति भी हो गयी। बड़े-बड़े विद्वानों की बुद्धि कभी भगवान् की माया से मोहित हो जाती है। वे कर्मों के मीठे-मीठे फलों का वर्णन करने वाली अर्थवाद रूपिणी वेदवाणी में ही मोहित हो जाते हैं और यज्ञ-यागादि बड़े-बड़े कर्मों में ही संलग्न रहते हैं तथा इस सुगमातिसुगम भगवन्नाम की महिमा को नहीं जानते।
यह कितने खेद की बात है। प्रिय दूतों! बुद्धिमान् पुरुष ऐसा विचार कर भगवान् अनन्त में ही सम्पूर्ण अन्तःकरण से अपना भक्तिभाव स्थापित करते हैं। वे मेरे दण्ड के पात्र नहीं हैं। पहली बात तो यह है कि वे पाप करते ही नहीं, लेकिन यदि कदाचित् संयोगवश कोई पाप बन भी जाय, तो उसे भगवान् का गुणगान तत्काल नष्ट कर देता है।
जिनकी जीभ भगवान् के गुणों और नामों का उच्चारण नहीं करती, जिनका चित्त उनके चरणारविन्दों का चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में नहीं झुकता, उन भगवत्सेवा-विमुख पापियों को ही मेरे पास लाया करो।
जब यमदूतों ने अपने स्वामी धर्मराज के मुख से इस प्रकार भगवान् की महिमा सुनी और उसका स्मरण किया, तब उनके आश्चर्य की सीमा न रही। तभी से वे धर्मराज की बात पर विश्वास करके अपने नाश की आशंका से भगवान् के आश्रित भक्तों के पास नहीं जाते और तो क्या, वे उनकी ओर आँख उठाकर देखने में भी डरते हैं।
प्रिय परीक्षित्! यह इतिहास परम गोपनीय है।
                            माहत्य
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विशेष- प्रभु ने यह अपना अनुग्रह प्रकट करने के लिए किया इसी लिए कहते हे की प्रभु कर्तुम अकर्तुम अन्यथाकर्तुम सर्वसमर्थ है।आज की एकादशी उसी अजामिल के नाम से अजा एकादशी कहलाती है.
ये अध्याय से यह सीख मिलती है कि  हम सब पुष्टि वैष्णवो को ठाकुरजी की सेवा और नाम किर्तन सतत अंतिम श्र्वास तक करना है , कितनी भी विषम परिस्थिति हमारे जीवन में क्यों न आए ?
ठाकुरजी की सेवा और ठाकुरजी से स्नेह यही पुष्टि जीव का लक्ष्य होना चाहिए ।
मनुष्य चाहे जितना बड़ा पापी हो , चाहे जितना नि:साधन हो ; यदि सच्चे ह्रदय से एकबार भी प्रभु की शरण स्वीकार ले तो प्रभु उसको " स्वजन " मान लते हैं . इसीलिए महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी  ने "कृष्णाश्रयस्तोत्र" में कहा हैं :-
"पापसक्तस्य दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम"
भावार्थ :- सुखी हो या दु:खी , पापी हो या निष्पाप , धनवान हो या निर्धन , साधन-सम्पन्न हो या नि:साधन ; सभी को श्रीकृष्ण की शरण में ही जाना चाहिए .
          सब देवें के देव , सर्वशक्तिमान , सर्वकारण ऐसे श्रीकृष्ण को छोड़ कर अन्य किसी की शरण में क्यों जाएँ ?
      इसीलिए पुष्टिमार्ग श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति का मार्ग
दिखाता/सिखाता है .

    "राष्ट्रीय भागवत कथा प्रवक्ता"
   प्रमोद कृष्ण शास्त्री जी महाराज
     श्री धाम वृंदावन(मथुरा)
 08737866555 /9453316276