सोमवार, 22 जनवरी 2018

श्री राम कथा:- हनुमानजी के अभिमान का नष्ट होना ,,भरत हनुमान मिलन संवाद

​लंका के रणक्षेत्र मे मेघनाद के शक्ति-प्रहार से श्री लक्ष्मण जी मूर्छित हो गये । लंका के सुषेण वैद्य की आज्ञा से श्री हनुमान द्रोणाचल पर्वत पर से विशल्यकर्णी औषधि (संजीवनी बूटी) लेने चल दिये । वे वहाँ पहुंचकर औषधि को पहचान नहीं पाये और उन्हे पूरे पर्वत को ही ऊखाड कर ले चलना पडा ।

देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥
भावार्थ : भरत जी ने आकाश में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तब मन में अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान तक धनुष को खींचकर बिना फल का एक बाण मारा ।
शंका : हनुमान जी के अवधपुरी के ऊपर से उड़ने का क्या कारण था ? युद्ध के समय हनुमान जी के मन में अपने बल का अभिमान आ गया था । भगवान् कभी अपने भक्त के मन में अभिमान का अंकुर बढ़ने नहीं देते । लक्ष्मण जी जब मूर्छित हुए तब भगवान् श्री राम ने शोकातुर होकर कहा की हनुमान जैसे महाबली के रहते हुए भी तुम (लक्ष्मण ) पर यह आपत्ति आयी ,यदि हमारे भाई भरत यहां होते तो वे अवश्य तुम्हारी रक्षा करते । (हनुमन्नाटक १३ । ११ )
भरत बाहुबल की प्रशंसा सुनकर हुनमान जी के चित्त में भरत जी के बल की परीक्षा का भाव उठा । अतएव सर्वज्ञ , सर्वउरवासी प्रभु ने उन्हें आज्ञा दी की अवधपुरी का समाचार लेते आना । इस कारण से पर्वत लेकर हनुमान जी अवधपुरी के ऊपर से जाने लगे । भरत की उस समय बहार बैठे थे । दूसरी शंका :भरत जी रात्रि में बहार क्यों बैठे थे ? इसका उत्तर हनुमन्नाटक ग्रन्थ से स्पष्ट होती है । जिस समय हनुमान जी संजीवनी बूटी लाने हिमालय पर गए थे ,उसी रात्रि श्री सुमित्रा माता ने एक स्वप्न देखा की उनकी सारी बायीं भुजा को सर्प निगल रहा है । वह स्वप्न देखकर डर से उठ बैठी । उन्होंने यह स्वप्न कौसल्या जी को सुनाया और कौसल्या जी ने पुरोहित महर्षि वसिष्ठ जी को । 
श्री वसिष्ठ जी ने धनुर्बाण धारण कराके भरत जी को बिठाकर घृत के होम के द्वारा शांति करायी । तगर और फूलोंसमेत चंदन , कमल , कमलनाल , कपूर ,खस और बहुत – से घीसे भरे हुए नारियल से पुराहुति दे रहे थे, उस समय बड़े वेग से जलती हुई अग्नि की तरह दीप्तिमान् पर्वत को लिए वहाँ हनुमान जी मौजूद हो गए । भरत जी को शंका हुई की दुःस्वप्न का मूल यही न हो । कोई निशिचर होगा ,वह पर्वत अवधपुरी पर डालने न आया हो । परंतु अभी अनुमानमात्र था । धोखे से कोई और न मर जाए इसीलिए बिना फिर का बाण मारा ।
मारना नहीं था ,केवल शिथिल करके गिरा देना था । जैसे रामचंद्र जी ने विश्वामित्र यज्ञ के समय मारीच को बिना फर का बाण मार था जिससे विघ्न शांत हो ,उसे बल मालुम हो जाये और उसके प्राण भी बचे रहे । होम समय हिंसा करना शास्त्रवर्जित है  परंतु सात्विक यज्ञ रात्रि में नहीं होता ,अतः बाण मारने में दोष नहीं है ।
परेउ मुरुछि महि लागत सायक।
सुमिरत राम राम रघुनायक ।।
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए।
कपि समीप अति आतुर आए ।।
भावार्थ : बाण लगते ही हनुमान्‌जी ‘राम, राम, रघुनायक’ का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रिय वचन (रामनाम) सुनकर भरतजी उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान्‌जी के पास आए ।
शंका : हनुमान जी गिरे तो पर्वत कहा गया ? इसका उत्तर गीतावली में गोस्वामी जी ने दिया है – जब भरत के बाण से  हनुमान जी पृथ्वीपर गिर पड़े ,तब पवनदेव ने पर्वत को अदृश्यरूप से आकाश में रोक रखा । दूसरे एक महात्मा जी का भाव है – भरत जी ने यह सोचकर की पर्वत लेकर अवधपर डालने के लिए कोई निशिचर आ रहा है, ऐसा बाण चलाया कि हनुमान जी को उसने मूर्छित कर दिया और पर्वत को भी आकाश में ही रोक लिया ,गिरने न दिया ।
बिकल बिलोकि कीस उर लावा।
जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥
मुख मलीन मन भए दुखारी।
कहत बचन भरि लोचन बारी॥
भावार्थ : हनुमान्‌जी को व्याकुल देखकर उन्होंने हृदय से लगा लिया । बहुत तरह से जगाया(मुखपर जल की छींटे देना ,औषधि सुँघाना इत्यादि ) पर वे जागते न थे! तब भरतजी का मुख उदास हो गया। वे मन में बड़े दुःखी हुए और नेत्रों में जल भरकर ये वचन बोले ।
जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा ।
तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा ।।
जौं मोरें मन बच अरु काया ।
प्रीति राम पद कमल अमाया ।।
भावार्थ : जिस विधाता ने मुझे श्री राम से विमुख किया, उसी ने फिर यह भयानक दुःख भी दिया। यदि मन, वचन और शरीर से श्री रामजी के चरणकमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो ।
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला।
जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा।
कहि जय जयति कोसलाधीसा॥
भावार्थ : यदि श्री रघुनाथजी मुझ पर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए। यह वचन सुनते ही कपिराज हनुमान्‌ जी – कोसलपति श्री रामचंद्रजी की जय हो, जय हो – कहते हुए उठ बैठे ।
संतो का भाव है – हनुमान जी बाण से मूर्छित न हुए थे ,वे केवल भरत की भक्ति की परीक्षा – हेतु मूर्छित बन गए थे । जब भरत जी को मन-कर्म – वचन से श्रीराम का भक्त जाना तब उठ बैठे । नहीं तो मूर्छित अवस्था में सुनते कैसे ? अन्य संतो का भाव है की हनुमान जी मूर्छित हुए थे , अनेक उपाय करने पर भी उनकी मूर्छा दूर नहीं हुई तब भरत जी ने रामपद प्रेम का आश्रयण किया , भरत जी की रामपद – प्रीति के बल से हनुमान जी जगे ।
हनुमन्नाटक १३ ।२६ में लिखा है की हनुमान जी पूर्ण रूप से मूर्छित नहीं हुए थे , उनके कोई पुरूषार्थ न रह गया था । हनुमान जी शिथिल हो गए थे पर बोलते ,सुनते थे । उसी स्वस्थ में उन्होंने भरत जी को लक्ष्मण – मेघनाद युद्ध प्रसंग सुनाया था । तत्पश्चात् श्री वसिष्ठ जी ने हनुमान जी द्वारा लाये द्रोणगिरि पर्वत से औषधि ( संजीवनी बूटी ) लेकर उनकी मूर्छा दूर की ।
लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदय समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥
भावार्थ : भरतजी ने वानर (हनुमान जी) को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंद तथा प्रेम के आँसुओं का) जल भर आया। रघुकुलतिलक श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके भरतजी के हृदय में प्रीति समाती न थी ।
तात कुसल कहु सुखनिधान की।
सहित अनुज अरु मातु जानकी॥
लकपि सब चरित समास बखाने।
भए दुखी मन महुँ पछिताने॥
भावार्थ : (भरतजी बोले-) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान श्री रामजी की कुशल कहो। वानर (हनुमान जी) ने संक्षेप में सब कथा कही। सुनकर भरतजी दुःखी हुए और मन में पछताने लगे ।
अहह दैव मैं कत जग जायउँ।
प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा।
पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥
भावार्थ : हा दैव! मैं जगत्‌ में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मन में धीरज धरकर बलवीर भरतजी हनुमान्‌जी से बोले ।
संतो के भाव : कुअवसर शब्द गोस्वामी जी ने प्रयोग क्यों किया ? उत्तर है की भारत जी सोचने लगे – लक्ष्मण जी रणभूमि पर घायल पड़े है , हनुमान जी जिनको औषध लेकर जाना है वे यहां है , इन्हें शीघ्र श्रीराम के पास पहुंचा दूं । यदि मै शोक में पड गया तो सब शोक करने लगेंगे , समय भी ख़राब होगा और औषध समय पर न पहुँचने से लक्ष्मण जी के प्राण जा सकते है । यह समय शोक करने का नहीं है अपितु कर्तव्य करने का है ।
तात गहरु होइहि तोहि जाता।
काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढु मम सायक सैल समेता।
पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥
भावार्थ : हे तात! तुमको जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड़ जाएगा। (अतः) तुम पर्वत सहित मेरे बाण पर चढ़ जाओ, मैं तुमको वहाँ भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम श्री रामजी है ।
संतो के भाव : भरत जी कह रहे है की आप पर्वत सहित हमारे बाण पर चढ़ जाओ । सुबह होने पर औषधि काम न देगी । हनुमान जी की गति यद्यपि वायु के सामान है ,परंतु वे थोड़े श्रमित है और बाद में लंका जाकर युद्ध भी करना है । इससे यह भी ज्ञान होता है की श्री भरत जी के बाण की गति हनुमान जी जितनी या उससे भी तेज  है । भरत की के बाण में अद्भुत शक्ति है । महाभारत में भीम गर्वहारण का प्रसंग देखा जाये तो भीम हनुमान जी की पूँछ को तिलमात्र भी हिला नहीं पाया । यहाँ भरत जी का बाण पूरे हनुमान जी के शरीर को पर्वत सहित उठाकर प्रातःकाल से पहले सरकार के चरणों में पहुंचा देगा ।
श्री रामभक्त पर बाण चलकर हमसे अपराध हुआ है , इस बहाने हमसे कुछ सेवा हो जाए अतः बाण पर चढ़ जाने कहा । यहां भरत जी ने श्री रामचंद्र जी को कृपा / दया के सागर कहा है । भाव की हमपर कृपा की , हनुमान जी को हमारे पास भेजकर अपना समाचार दिया , हृदय में हरिचर्चा सुनकर शीतलता हुई ।
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना।
मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी।
बंदि चरन कह कपि कर जोरी॥
भावार्थ : भरतजी की यह बात सुनकर (एक बार तो) हनुमान्‌जी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा? (किन्तु) फिर श्री रामचंद्रजी के प्रभाव का विचार करके वे भरतजी के चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले ।
संतो के भाव : हनुमान जी ने सोचा की हमारा इतना विशाल बलवान शरीर है ऊपर से साथ में यह पर्वत भी है । भरत जी का एक छोटा सा बाण इतना भार कैसे उठाएगा । फिर मन में सोचने लगे की भरत जी मन -वचन -कर्म से श्री राम के भक्त है , अभी कुछ देर पहले हमें उनके एक बाण ने मूर्छित कर दिया था  । श्री राम के भक्त के लिए कुछ भी असंभव नहीं ।
दूसरा भाव ऐसा की जब समुद्र लांघकर लंका में गए तब हनुमान जी को अभिमान न हुआ था , वहाँ हनुमान जी ने कहा था – ये सब तो श्री रघुनाथ जी का प्रताप है , इसमें मेरी कोई प्रभुताई नहीं है । परंतु आज अभिमान हुआ । हनुमान जी ने सोचा की आज श्रीराम ने भरत जी जैसे संत के द्वारा मेरा अभिमान छुडा दिया । इस कारण से यहां श्री हनुमान जी ने हाथ जोड़कर भारत जी के चरणों की वंदना की ।
तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥
भावार्थ : हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपका प्रताप ( एवं आपका प्रताप और प्रभु को ) हृदय में रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आज्ञा पाकर और भरतजी के चरणों की वंदना करके हनुमान्‌जी चले ।
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥
भावार्थ : भरतजी के बाहुबल, शील , गुण और अपार प्रभुपद प्रेम की बारंबार मनमे सराहना करते हुए पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी चले जा रहे हैं ।
जैसे श्री कृष्ण ने ज्ञानी प्रियभक्त उद्धव जी को गोपियों के पास प्रेमकी दीक्षा करने की लिए भेजा ,स्वयं कुछ नहीं समझाया ।
भगवान् को जब किसी को प्रेम का पाठ पढ़ाना होता है , ज्ञान अभिमान से रहित करना होता है तो वे उसे आचार्यो / संतो के चरणों में भेजते है । कभी किसी संत में भी किंचित् अभिमान आ जाये तो उसे भी दूसरे संतो का संग करने ही  जाना पड़ता है । यहां श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी को प्रेम की पराकाष्ठा प्राप्त करने के लिए प्रेरणा करके श्री अयोध्या जी भेजा है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें